Tuesday, 6 April 2021

समाजिक पहचान कि पहलि पहल

आपको आपति है कि उसने आपको शूद्र क्यों कहा ? भई ,उसकी जो मर्जी वह आपको कहे , यह उसकी भाषा , उसका चिंतन और उसकी व्यवस्था है ।

हमें तो यह सोचना है कि हम क्या है और उसको क्या कहना है ।‌

हम आजीवक हैं और वह - ब्राह्मण ,जैन ,बौद्ध ।

यहीं पर सारी बात खत्म हो जाती है ।‌वे अपना जाने ,हम अपना देखें ।

उसके लिए अवर्णवाद आश्चर्यजनक है , हमारे लिये वर्णवाद निष्कृष्ट है ।

होली का सच ऒैर बामसेफ का मिथक

अo भाo धोबी महासंघ के वरिष्ट सदस्य गण 🙏🏻

आप के द्वारा अo भाo धोबी महासंघ के तत्वधान मे चलाये जाने वाले अम्बेडकरी विचार धारा पर हमारे द्वारा कुछ आक्षेप लगाये जाने पर कुछ व्यक्तिगत रुप से जानने वाले के साथ WhatsApp, Facebook जैसे माध्यम से जुडे दोस्त हम से क्रुद्ध हो गये थे वैसे दोस्त, परिचित, रिस्तेदार,  वरिष्ट गण से निवेदन है  कुछ तथ्य को जरुर संज्ञान मे लेगे ऒैर समाज को सहि दिशा देने का प्रयत्न करेगे 🙏🏻

मेरे द्वारा लगाये गये तीन मुख्य आक्षेप:-
1) BAMCEF  वास्तव मे ब्राह्मण सेफ है कि संस्था है ॥
2)मुलनिवासी बनाम आर्य कि गलत थ्युरी..
3)ब्राह्मणो के पोथी क्या है? ??
   साहित्य  या  इतिहास? 
इतिहास नहि कहा जा सकता. .. साहित्य है ॥
तो इस साहित्यक मिथ्य को आधार बना कर BAMCEF जो अम्बेडकरनामा बनाया है वो भी ब्राह्मणो कि पोथी के समान कचरा है ॥ सच होने का आभास करायेगा पर सच का पता नहि चलेगा ॥
इतिहास पढे, , साहित्य नहि 🙏🏻 सच जाने, कहाँनिया नहि ।

ये तीनो उपरोक्त हमारे द्वारा लगाये जाने वाले मुख्य आक्षेप थे. ...इस लिये इसका अस्पष्टिकरण हमे हि देना होगा क्योकि हम अपने समाज को दिगभ्रमित  होते नहि देख सकते जिस समाज मे हम पले पढे, इसके लिये हमारे भी  कुछ कर्तव्य है ।  अस्पष्टि करण निम्न है 🙏🏻

अo भाo धोबी महासंघ के ग्रुप मे कई ऎसे मैसेज वरिष्ट गण के द्वारा दिये गये जिस का कोई ऎतिहासिक पुरातात्विक वजुद नहि है ॥ पहले से  हमारा धोबी समाज ब्राह्मण के फैलाये जाल, रमायण, महाभारत जैसे साहित्य ऒैर हर पर्व त्योहार पर मिथक कथाऒ के प्रचार से   भ्रमित थे अब बामसेफी के झांसे मे फस कर  ब्राह्मणो के फैलाये कथा, कहानियो के अपोजिट कथा से भ्रमित हो रहे है ..👇🏻
1) राम, कृष्ण जैसे साहित्य गल्प पात्र कि कोई ऎतिहासिक, पुरातात्विक सबुत मॊैजुद नहि है तो बामसेफि अम्बेडकर वादी किस वैज्ञानिकता के आधार पर "संबुक",एकलब्य  जैसे साहित्यक पात्र को मुलनिवासी बता कर किस को स्थापित कर रहे है?  ब्राह्मणी मिथक साहित्य को या मुलनिवासी को?  

राम,कृष्ण, पाण्डव,बलराम काल्पनिक पात्र साहित्यक मिथक है तो संबुक, एकलब्य, कर्ण, शबरी यथार्त (सच) कैसे हो गया ? ब्राह्मणी साहित्य के दोनो पात्र अच्छाई-बुराई के रुप मे एक दुसरे के पुरक है तो एक मुलनिवासी दुसरा विदेशी कैसे कह सकते है?

  ये बामसेफी ब्राह्मणी साहित्य के अपोजिट पात्र को स्थापित नहि बल्कि पुरा ब्राह्मण शोसक समुदाय के साहित्य को हि स्थापित कर रहे है ॥इस लिये कहा हि BAMCEF ब्राह्मण सेफ करने कि संस्था है ॥ 

2) सबसे बडा अश्चर्य तब हुआ जब अo भा0 धोबी महासंघ के वरिष्ट सदस्य द्वारा "मै होलिका बोल रहि हुँ" कथा प्रचारित किया गया ॥

हर प्राचिन त्योहार मे ब्राह्मण द्वारा कोई ना कोई मिथकिय कथा घुसेड कर उसे अपना लिया आप इसका विरोध नहि कर के होलीका को मुलनिवासी बता दिया, साथ हि होलिका का बलात्कार करवा दिया,  रंग या अबीर लगाये जाने कि नई शब्दावली गढ कर  अ+बीर अर्थात कायर बता दिया ॥ 

मै बहुत हत प्रभ हो गया ये कि आप मिथ्य, भ्रमाने वाली  ब्राह्मणी कथा का विरोध ना कर के होलिका का जो मिथ्य गढा वो पुरी तरह कल्पना पर आधारीत है किसी पुस्तक मे प्रमाण नहि है स्पष्ट  झुठा प्रतित होता है ॥ ऒैर ब्राह्मणी ब्रचस्व कि कथा कहाँनियो को हि हष्ट पुष्ट कर दिया ॥ ऎसे भ्रमित कथा को प्रचारित ना करे 🙏🏻 जिस के प्रभाव से प्रभावित होकर  हमारे धोबी समाज अपने दुश्मो मे इजाफा कर के खुद के व्यवसाय पर कुल्हाडि चला ले  ऒैर पुरे समाज से अलग थलग हो जाये ॥ 

ऒैर रहि बात त्योहारो के मुल ऒैर उसके ऎतिहासिक विकाशक्रम को खोज कर सहि रुप मे स्थापित करने कि जिस से हमारे धोबी समाज का *समाजिक स्तर तो बढेगा* हि साथ हि हमारे धोबी समाज मे क्रातिकारी बुद्धिजीवियो कि संख्या भी बढेगी ऒैर सुचारु अध्यन पर जोर देगे ॥ब्राह्मणो ग्रंथो के झुट के पुलिंदा से बाहर भी होगे ॥

*मै आपने कुछ सोध का सहारा लेकर इस त्योहार कि सत्यता पर प्रकाश डालता हुँ ॥  इस त्योहार का जन्म हमारे रजक समाज द्वारा हुआ है क्यो कि आज के परिदृष्य मे रंगने अर्थात रंग कर्मी , केवल एक जाती रजक (धोबी ) है ॥*
................ होली त्योहार का जन्म पुरातन समाज मे  मॊैसम पर अधारित था ॥ शीत ऋतु मे कपडे को रंगना ऒैर सुखाना बहुत हि कष्ट कारक था ऒैेर व्यवसाय मे गति धीमा हो जाता था ॥  परिवर्तित मॊैसम की वजह से रजक(रंगरेज) खुश हुए होगे ऒैर एक दुसरे से गले मिल कर अपने हि रंगो को एक दुसरे को लगाये होगे ॥ इस लिये वसंत अर्थात गृष्म ऋतु के आगमन मे होली अर्थात रंगोत्सव मनाये जाने जैसी प्रथा का निर्माण हुआ होगा  ॥ *इस के प्रमाण हमे अंग्रेजी इतिहासकार तथा पुरातात्विक ह्वीलर के मोहनजोदडो कि खुदाई के निष्कर्श से मिलता है ॥*
ह्वीलर को  खुदाई मे रंगरेजो के रंगे जाने वाले कर्मशाला 87×64.5 फुट का मिला ॥ जिसमे ध्यान देने वाली बात है कि तीन कमरो मे जिसमे बहुत सफाई के साथ ईटे बिछी हुई फर्श मिला ॥ जिसमे एक कमरे मे शंकु आकार के तीन गढ्ढा जो नाद(डावर) जारो के स्थान होता था ऒैर कमरे के एक कोने मे कुंआ मिला जिसमे सधारण आकार कि सिढियां मिली जो रंगरेज (रजक ) द्वारा रंगने कि नादे थी
इस पर एक अन्य विद्वान *जेकेता हाकस* ने इस पर स्पष्ट विचार दिये कि कमरे मे कुए होना इस बात कि ऒैर इसारा करती है कि  कपडो को रंगने से पहले इसे झार (alkaline) द्वारा भिगो कर पैरो से नादो मे दबाता (गुंदता) था फिर इसे रंगा जाता था ॥ इस प्रोसेस को आज भी  धोबी (रजक) समाज द्वारा भागलपुर मे सिल्क कपडो के रंगाई मे करता आ रहा है ॥

इस ऎतिहासिक प्रमाण को ना मानते हुए ब्राह्मणी  मिथ्य साहित्य ऒैर bamcef के प्रतिक्रांति के झांसे मे फस कर पुरे समाज का समाजीक स्थती ऒैर आर्थीक दोनो तरह से नुकसान होना तय है ॥

3) हम जानते है सम्राट अशोक के बाद  कोई शस्क्त शासक नहि होने कारण भारत के ऎश्वर्य से आर्कशित होकर मुट्ठि भर - भर के विदेशी अक्रांत, ऒैर जमिने ,या पशु चारागाह कि तलासते हुए कई कविले इस भारत कि ऒैर आर्कशीत हुए जिसमे हुण, मंगोल,  सिथीयन (युनानी ) अरबी,  थाई, चम्पु etc आते गये ओैर विभीन्न जातियो मे स्थापित होते गये. .. तो इस सच को झुटला कर आर्य बनाम मुलनिवासी जैसे दो वर्ग मे बाट कर अपने स्वजाती बंधु को क्यो उलझा रहे है ॥ इस तरह के ज्ञान हमारे समाज के लोगो को कुण्ठित कर अर्कम बना दे रहा है ॥ सच बताईये सच को प्रचारित करे जिस से हमारे समाज मे नेतृत्व करने वाले जेनरेशन का विकास होगा ऒैर सफलता कि बुलंद ऊचाईयो को छुने कि क्षमता का विकाश होगा ॥

आपका अप्रिय 🙏🏻किशन कुमार लाल🌹mob - 9852003692

Thursday, 1 April 2021

रजक धर्म

रजक धर्म 

चंद्रगुप्त जैनी बन गये,  सम्राट अशोक बोद्ध बन गये फिर इनके कविले वाले लोग अपने वास्तविक रुप आजीवक (अर्जक) बन गये ॥ वहि अर्जक जो आज रजक है ॥ ये वहि रजक है जिसने भारत के सभी जातीयो के ऒैरतो के मांग मे रंजक (सिंदुर) भर दिया ॥ जिसके सम्मान मे आज भी ये रस्मे ब्राह्मण करते है धोबी घर से हि सिन्दुर मांग कर (सुहाग दान ले कर हि ) शादी करते है ॥

Friday, 26 March 2021

पाली मे रजक का अर्थ

*पहले अण्डा (साबुत) पैदा होता है टुट कर आमलेट (आम+लेट) बनता है ॥*

पाली ऒैर संस्कृत एक हि है 🙏🏻
K k lal का ज्ञान🌹

💫: एक नागनाथ तो सुसरा सांपनाथ है ॥🙏🏻 बचो बच सको तो 🙏🏻

अण्डा (साबुत) -- *रजक फारसी के शब्द है जिस का अर्थ रोजी, रोटी देने वाला होता है जिसका मनतव्य राजा से है*।

आमलेट-- *पाली मे इसे रजक्ख बोला गया जिस का अर्थ रज= धुल कन मिट्टी, क्ख= धोना*
इस लिये संस्कृत मे रजक का अर्थ धोबी हुआ

इस लिये कहा एक नाग नाथ दुसरा सांप नाथ ॥🙏🏻

किशन कुमार लाल🌹

Wednesday, 17 March 2021

पुरखो के नाम समर्पित रजक समुदाय का सब से बडा उत्सव "बहर पुजा" भाग-2

पुरखो के नाम समर्पित रजक समुदाय का सब से बडा उत्सव "बहर पुजा" भाग-2

रजक समुदाय के इस परंपरा मे निहित लोक भाषा के  शब्दो के अर्थ स्पष्ट किये बिना इस के भव्य इतिहास कि ओर ले जाना सार्थक नहि होगा. . साथ हि एक लेखक होने के नाते यह अवस्य  हि सुनिश्चित करुगा कि किसी अन्य समुदाय द्वारा भाषाई छेड छाड नहि हो ॥  भाषा बदली नहि कि अर्थ अलग हो जाते है ॥

(1)  दारु  - शराब मे बहुत अंतर है

दारु कि महिमा अत्यंत निराली है, लोक देव,देवता को दारु चढाये जाने कि प्ररंपरा रहि , इसी दारु मे देव भी जोडा जाता है. .. देव तो शंकर महादेव का उपनाम है,  बुद्ध को भी लोक भाषा मे देव हि कहा जाता था । देवदारू एक पवित्र वृक्ष को कहा जाता है. . पंजाब मे आज भी आँखो मे डालने वाली दवा को दारु कहा जाता है. . दवा,दारु के साथ प्रयुक्त होते है दवादारु,  ॥ दारु के अन्य  अर्थ चिकित्सा, दवा, ऒैषद  लकडी,काठ, दानी, दानशील,  होता है ॥ कहि भी इसका गतल अर्थ नहि बताया गया ।
*इस प्रकार दारु को पवित्र द्रव कहा जा सकता है ॥*
 
उपरोक्त सारे अर्थ यह प्रमाणित करता है कि रजक समुदाय द्वारा अपने पितरो को चढाये जाने का सांकेतिक अर्थ यहि है कि हमारे पितरो द्वारा  दारु का प्रयोग दवा के रुप मे  चिकित्सा के क्षेत्र मे प्रयोग करते होगे ॥. दारु का दवा मे प्रयोग हमारे पुरखो कि अमानत है ॥ . सैधव सभ्यता मे दारु के प्रयोग के  प्रमाण मिले है । किसी अन्य सभ्यता  के भाषाई अर्थ मे इस प्रकार के प्रमाण नहि मिलते  ॥ .... अर्थात अन्य सभ्यता  दारु का गलत स्तेमाल करते थे  या यु हुँ कहे कि वो दारु के दवा मे स्तेमाल जानते नहि थे ॥ इस लिये जैसी सोच वैसी भाषा बनी ॥

1) शराब,:- जिन दो पदों से मिलकर बना है, वे हैं –शर और आब। ‘शर’ या ‘शर्र’ एक अरबी शब्द है, जिसका अर्थ है उपद्रव या फसाद; और ‘आब’ पानी को कहते हैं । अर्थात फसाद, या उपद्रव कराने वाला पानी ।
2) मदिरा, सोमरस शब्दो का प्रयोग वेदो मे बताई गई है मादक, उत्तेजक द्रव के रुप मे,  इंद्र के दरवार मे सुर, सुरा, सुन्दरी तीनो के साथ इसके प्रयोग गलत स्तेमाल के संकेत है ॥

🌹किशन कुमार लाल 🌹mob no - 9852003692

Saturday, 13 March 2021

पुरखों के नाम समर्पित रजक समुदाय का सब से बडा उत्सव "बहर पूजा"* भाग - 1

*पुरखों के नाम समर्पित रजक समुदाय का सब से बडा उत्सव "बहर पूजा"* भाग - 1

भागलपुर, सुलतानगंज - शाहकुण्ड के बीच बेलथु ग्राम मे एक टूटे फूटे ईंटों के  ढह गये अवशेष आज भी हमारी संस्कृति के जिंदा होने के सबूत पेश कर रही है जो कभी अपने यॊैवन काल मे पूरे रजक समुदाय के लिए एक मात्र सबसे बड़ा उत्सव 'बहर  पूजा,' के नाम से हुआ करता था ॥

यह बहर पूजा जो मुख्यतः सावन में रजक समुदाय के मुखिया द्वारा महीने के दो दिन तय कर लिया जाता था ऒैर सभी रजक समुदाय नहा धोकर, वृद्ध द्वारा सफेद धोती कुर्ता, नवयुवक द्वारा नये कपड़े पहन कर धानु बाबा थान पहुँचते थे। जिसमें मुख्य रूप से धानु बाबा *थान* की ही  पूजा होती थी ॥ वर्षो से चली आ रही यह  परंपरा अपने आप में अनोखे रस्मों रिवाजों के साथ सदियो पूर्व के भव्य इतिहास को अपने में समाहित किए हुए थी ॥ ये बहर मेला अपने आप में इस लिये अनूठा है कि इसमें रजक समुदाय द्वारा अपने पितरों को दारु का प्याला अर्पित करते थे इसके उपरान्त ही घर के मुखिया दारु को प्रसाद के रुप में ग्रहण करते थे ॥ तथा फुलाईस रखा जाता जिसमे लोटा को उल्टा रख कर इसके पेंदी मे अरवा चावल रख कर इसके ऊपरी हिस्से पर सुपारी रखा जाता था जिसे पानी से भिंगोया जाता था।  जिसके कुछ समय उपरान्त ये सुपारी गिर जाये तो इसे पुरखों कि स्वीकृति मानी जाती थी ॥ इस फुलाईस वाली परंपरा के उपरान्त ही बली दी जाती थी ॥ जानकर अश्चर्य होता है कि धानु बाबा थान मे सिर्फ सिंगारी (मिट्टी के अंगुली साईज के उभरे हुआ जैसा ,।।।।।।।,  7 लाईने होती थी जो पुरे समाज के लिये पुजनिय होते थे ॥ इसी सिंगारी पर झांपी जो कागज के चॊैडि पट्टि के बने गोलाकार आकार जो बीच से खाली  होता था इस सिंगारी के उपर चढाते (पतले धागे कि सहायता से ,लटकाते थे ) थे ॥ 
 लगभग 25-30 वर्ष पूर्व इस मेले कि भव्यता चरम पर थी पर कुछ ही वर्षों में यह परंपरा कुछ प्रगतिशील कहे जाने वाले समाज सुधारक जड़ बुद्धि बिना इस परंपरा का बिना दस्तावेजी करण किये रजक समुदाय द्वारा इस भव्य परंपरा को खत्म करने  में सफल हुए । 

इस परंपरा को जीवंत रुप मनाने वाले कि दो पीढियां सैकड़ों कि तादाद में वर्तमान मे मौजूद है जो इस मेले में श्रद्धालु बन कर जाते थे। इस रजक समाज के मेले कि भव्यता के बारे में बताते बताते कईयो के गले रुंद्ध हो गये तो कई के आँखो मे  आंसू छलक गये ॥ ये दो पीढी के नाम (1) दिलीप रजक , उम्र 55 वरीय कार्यालय अधीक्षक, उत्तर पूर्व रेलवे, कटिहार (सेवारत), बीरु रजक, स्व. राजू रजक, धीरज रजक ,नरसिंह रजक(ऊर्म 80 वर्ष) ,विष्णु रजक (65), बिंदु रजक (55),  etc सारे सुलतानगंज, भागलपुर के विभिन्न क्षेत्र के निवासी हैं।

*रजक समुदाय द्वारा पुरखों को दारु अर्पित, ऒैर बलि देने कि परंपरा संपूर्ण भारत में विद्यमान थी:-* 
वाराणसी (उत्तर प्रदेश)  - चॊैका घाट का प्याला का मेला ॥
भागलपुर (बिहार)  :- वर्तमान मे धोबीया काली मंदिर के प्रांगण में इस मेले का प्रयोजन होता था ।

रजक समाज की यह प्रमुख  परंपरा पूरे देश मे सिर्फ धोबी जाति द्वारा मनाई जाती थी, जिसमे सिर्फ रजक समुदाय ही भाग  लेते थे जिससे संपूर्ण भारत के धोबी समुदाय एक पारंपरिक एकता के सूत्र में पिरोये हुए थी, अफसोस आज के अक्षर ज्ञानी  बुद्धिजीवी रजक समाज कि एकता के लिये बेतुके, तथ्य हीन प्रयास करते रहते दिख जायेगे ॥ 

जब इतिहास लेखन कि प्ररंपरा हमारे धोबी समाज मे नहि थी तो हमारे पुरखो ने अपने लाखो- हजारो वर्षो का इतिहास इसी संस्कृति के माध्यम से जीवित रखे हुए थे ॥ 
कोई भी परंपरा क्यों सदियो से चली आ रही है ?
 किसी परंपरा में हमारे पुरखों का क्या संदेश छिपा होता है? 
बिना इसके निहित अर्थ जाने प्रगतिशीलता कि आंधी मे कोई परंपरा, संस्कृति, पुरखों का थान(डीह, स्थान) नहीं छोड़ा जाना चाहिये था, कोई भी संस्कृति, परंपरा आप के समुदाय के विकाश मे बाधक नहीं होता, यह पूरे समुदाय के लिये प्रेरणाश्रोत,जीवंत समुदाय के एकता का प्रतीक होता है । 
Note- थान(ढिह),  दारु ,बहर, फुलाई शब्दों को लोकभाषा में ही रखा गया है॥
भाग - 2 में इस परंपरा के भव्य इतिहास से रूबरू होंगे ।🙏🏻
🌹किशन कुमार लाल 🌹भागलपुर , mob no 9852003692

Friday, 12 March 2021

उपनाम मे क्या रका रखा है part 1

अगर आप अपने को हिन्दु धर्म का हिस्सा समझते है तो आपने पुर्वजो के दिये हुए सर नेम (टायटल) का प्रयोग नहि करे. .....
              ये सरनेम चुगली कर देता है आप कि पहचान बता देता है कि आप के पुर्वजो क्या थे ॥. ...... 
...    ..     आप के हर सरनेम के पुरातात्विक प्रमाण के साथ विधमान है कि आप के पुर्वज बोद्ध थे ,आप  बोधी हो ऒर सम्राट अशोक के वंश के हो, आप के रक्त मे महान सम्राट चक्रवर्ती राजा अशोक का खुन आप कि रक्त वाहिनी मे दॊड रहा है ॥ ये चित्कार कर रहा है चिख चिख कर अपने होने का वजुद बता रहा है. ....... 

ऒर आप  बहरे, गुंगे, अंधे बन कर, हिन्दुत्व कि अफिम के नशे मे मद मस्त हो कर. .. बोधी से धोबी बन कर अपने पुर्वजो को गालिया दे रहे हो उस का अपमान कर रहे हो उस कि खिल्ली उडा रहे हो ,उसे हसी का पात्र बना रहे हो. ...... जागो बंधु जागो. .. आप के पुर्वज आप को आवाज दे रहा है, ,अपने विरासत को बचाने के लिए सोर मचा रहा है चित्तकार मार के रो रहा है. ... बचा लो आपने ऒर अपने पुर्वजो कि विरासत को. .......धोबी लाल

Wednesday, 10 March 2021

पुष्यमित्र शुंग पुर्व बुद्ध के वाहक

गॊैतम बुद्ध ने बलि प्रथा को खत्म किया था पुर्व बुद्ध के समय बलि प्रथा थी जो सैधव सभ्यता से चलती आ रहि थी. ........  शुंग भी बोद्ध हि थे बस वो पुर्व बुद्ध के विचारो के वाहक थे इस लिये बलि प्रथा को चालु कराया था लेकिन यज्ञ हवन बाद मे आर्यो ने घुसेड कर अपने को स्थापित किया. ..............................सैधव सभ्ता कि मातृ देवी ऒैर पुष्यमित्र शुंग मे समानता से पता चलता है कि शुंग पुर्व बुद्ध के वाहक थे. ...

शुंग ब्राह्मण होता तो जनऊ जरुर पहनता. ..
शुंग ब्राह्मण होता तो मंदिर बनाता लेकिन भरतहुत, सांची के स्तुप बनाये थे. ... शुंग काल मे एक भी मंदिर नहि बना था ॥ किशन कुमार लाल🌹

राजपुत के उतपत्ति सिद्धांत

करवा चॊथ एक पुर्वतः बोद्धो का त्योहार रहा है. ..ये धोबीयो के द्वारा सुरु किया गया पर्व है. ........

 चलिये आप के अपने रिसर्च का कुछ अंश समझाता हुँ. .....

करवा ब्रह्मवर्तपुरान मे वर्णित एक पात्र है जो धोबीन है. .....जो अपने पति कि रक्षा मगर से करती है ....यहि से करवा चॊथ पर्व मनाया जाने लगा. .......
....करवाचॊथ को तोडे = कर +व+ चॊथ
कर का अर्थ बाजु भुजा होता है जो शक्ति के प्रतिक माना गया (वर्ण व्यवस्था का क्षत्रिय)

चॊथ = चॊथ का अर्थ होता है चॊथा अंश अर्थात चॊथा पुत्र
अब समझे. ... वर्ण व्यवस्था का चॊथा पुत्र कर (भुजा =क्षत्रिय = राजपुत)

इस लिये कहा जाता है करवा चॊथ राजपुतो के घर से निकली हुई प्ररंपरा है. ..... ये वास्तविक मे रजक पुत है. .........🌹k k lal🌹

Monday, 8 March 2021

धोबी की बेटी ऒैर वोट केवल धोबी को*

*समाज को संदेश  ** 
 *धोबी की बेटी ऒैर वोट केवल धोबी को** 

बात सुल्तानगंज जिला भागलपुर, बिहार की है, जहां सतीश रजक ,(04.01.1939_19.04.1994) मुख्य वाणिज्य इंस्पेक्टर (अधिकारी), उत्तर पूर्वोत्तर रेलवे, कटिहार मे कार्यरत् थे। सेवारत रहते हुए समाज की सेवा के लिये रजक सुधार समिति सुलतानगंज के सचिव के  रुप मे कार्य करते रहते थे।  हर महीने अवकाश लेकर , इस मीटिंग में शरीक होते और लोगों को जोड़कर जागरूक बनाते रहते थे। इनकी लगन और जागरूकता ने धोबी समाज को अपने कल्याण के लिये बहुत सारी जानकारी हासिल करवाया । ब्लॉक से सरकारी फंड तक की जानकारी लेते और भागदौड़ कर उन कल्याणार्थ को इन अशिक्षित और गरीब धोबी समाज तक पहुंचाने का काम करते। इनकी सुविधा के लिये सरकारी अनुदान के रुप में ब्लीचिंग पाॅउडर, वाशिंग पाउडर, साबुन तक कंट्रोल रेट में उपलब्द्ध कराते थे । इन महापुरुष कि भविष्य दृष्टि ऒैर समाज के लिये किये गये कार्य आज के परिवेश में भी उतनी ही प्रासंगिक है जितने 1970-80 दशक के समय थी ॥ इनके कई संदेशो में एक समाज के नाम दूरगामी संदेश कई मायनों में 21वीं सदी में भी सटिक है *धोबी की बेटी ऒैर वोट सिर्फ धोबी को* ॥ आज के राजनैतिक परिवेश के बिखराव में  धोबी समाज हर राजनीतिक दल कि कठपुतली बनकर रह गई है। इसी राजनैतिक दूरदृष्टि को ये महापुरुष 70 के दशक में ही समझ गये थे, इसलिये यह संदेश  हर सभा में जरुर लोगों के बीच रखते थे। ये संदेश इसलिये बहुत ही महत्वपूर्ण है कि स्वo सतीश रजक जी  समाज में उत्कृष्ट कार्य के लिये  धोबी समाज में बहुत ही रसूख रखते थे, जिस कारण बहुत से राजनैतिक दल की निगाहों में थे ॥ कई राजनैतिक दल इनके घर पर पैर घिसते नजर आते थे।फिर भी सभी राजनेता को  खाली हाथ ही वापस जाना होता था ॥ इस संबंध मे बहुत हि प्रेरणादायी घटना है कि ..  एक राजनेता स्वo सतीश रजक जी के धोबी समाज के बीच बड़ा रसूख से प्रभावित होकर सर्मथन लेने घर पहुंचे तो उनका स्पष्ट दो टूक जवाब था. .. *आप को मालूम होना चाहिये कि आप  जिस धोबी जाति से सर्मथन लेने आये हैं वो अपनी बेटी ओैर वोट धोबी को ही देते हैं ।*  
           .   *ये वो महापुरुष थे जो अपने स्वार्थ के लिये कभी धोबी समाज से दलाली नहीं की।  उनका मत था कि जिस प्रकार धोबी समाज कि बेटी धोबी समाज कि प्रतिष्ठा होती है उसी प्रकार वोट भी धोबी समाज की प्रतिष्ठा है ॥*  *जिस प्रकार बेटी दूसरे समाज में जाने से पूरे समाज का मान सम्मान गिरता है, उसी प्रकार वोट भी दूसरे समाज में जाने से धोबी समाज का मान सम्मान, प्रतिष्ठा, प्रगति दूसरों के अधीन हो जाता है ॥*

स्वo सतीश रजक जी जगह जगह धोबी समाज में जाकर बैठक कर लोगों की जागृति के लिये प्रयासरत् रहते थे। उन्हीं कुछ विचारों को क्रमबद्ध कर उनके उत्कृष्ट कार्य को आपलोगों के सामने रखने का प्रयास करता हूं..
1) उस समय धोबी समाज कि स्थिति बहुत दयनीय थी इस लिये धोबी समाज के कल्याण के लिये बर्तन, पंडाल, चादर, कम्बल कि व्यवस्था किया करते थे ताकि गरीब धोबी के बेटे, बेटी कि शादी में या अन्य अवसरों में बोझ ज्यादा ना पडे ॥ यह एक सामूहिकता और अपनापन का भी परिचायक था।
2) सभी धोबी को एक उचित दर पर कपड़े धोने के लिये प्रेरित करते थे ताकि आर्थिक रुप से धोबी समाज उन्नत हो सके और व्यवसाय की एकरूपता बनी रहे ॥
3)धोबी समाज के लिये सामूहिक सप्ताहिक अवकाश का प्रयास करते थे ताकि काम के बोझ तले स्वास्थ्य खराब नहीं हो और अपने सगे संबंधियों से मेलजोल कर सकें ॥
4) उनका कहना था कि अपने बच्चों को शिक्षा अवश्य दें ताकि सामाजिक सोपान में आगे बढ़ सकें।
5) संविधान में प्रदत्त कानून को सभी के साथ साझा करते थे और किसी प्रकार की समस्या से निपटने के लिए कानूनी प्रक्रिया की भी सलाह देते थे।

आज स्वo सतीश रजक जी हमारे बीच नहीं रहे पर उनके संदेश ऒैर कार्य आज भी धोबी समाज के लिये प्रेरणाश्रोत हैं।🙏🏻

🌹किशन कुमार लाल(बंटी रजक)🌹
Mob no- 9852003692

Wednesday, 10 February 2021

*जाति के बीमार समाज विज्ञान से मुक्ति* part - 2

Part 2

*जाति के बीमार समाज विज्ञान से मुक्ति*

 अम्बेडकरवाद - दलितवाद  एक विचार का सूक्ष्म  खांचा है जिससे प्रभावित हो कर अनुसूचित जाति/जनजाति और अति पिछड़ी जातियां  अपने पुस्तैनी व्यवसाय को हीन दृष्टि से  देखने लगता है ऒैर इसमें रोजगार, आर्थिक उन्नति के अवसर खो देता है। यहि कारण है कि दलित, अम्बेडकरवाद को एक बीमार समाज विज्ञान कहने कि जहमत ऊठा पाया. ....
  आप दलित साहित्य या अम्बेडकर साहित्य पढ़ें, सारे तथ्यों पर गहराई से अध्ययन करे तो एक ही बात निकल कर आती है कि आप कि दुर्गति का कारण आप का गंदा व्यवसायिक पेशा रहा है....
 कहीं कोई जिक्र नहीं है कि आप के व्यवसायिक पेशा, व्यवसाय  आज बड़े- बड़े औद्योगिक रुप ले लिया है ऒैर इसका सलाना का कुल बिक्री करोड़ों में है ऒैर इस के मालिक वही सवर्ण समाज के लोग हैं जो इस व्यवसाय को लेकर आप पर व्यंग्यात्मक टिपण्णी करते थे ॥
 अपने पुश्तैनी व्यवसाय को लेकर आप ने कभी आर्थिक अध्ययन नहीं किया ऒैर ना दलितवाद अर्थात अम्बेडकरवाद आप को बताया ॥
💫: अपने कभी समझने कि कोशिश नहीं कि --
कोई रोजगार छोटा- बड़ा नहीं होता है. ...
छोटा- बड़ा हमारी सोच होती है. .......
हम अपने लगन, मेहनत के दम पर हर क्षेत्र में कामयाब हो सकते हैं. .........

सोचें, अगर -- चमार अगर चमरे के रोजगार को छोटा, घृणास्पद नहीं मानता तो -- बाटा, रिबोक,  श्रेीलेदर. जैसे ब्राण्ड के मालिक होते. ...।

नाई अपने व्यवसाय से प्यार करता तो आज सारे ब्यूटी प्रोडक्ट के मालिक होते।

तेली - अगर अपने तेल के रोजगार को हीन दृष्टि से नहीं देखता तो सारे तेल कम्पनी के मालिक तेली होते. . जैनी मारवाड़ी नहीं. ..

उसी प्रकार, अगर हम धोबी पेशा को घृणास्पद नहीं मानते ऒैर इस प्रोफेशन से प्यार करते तो सारे कलर(रंग) कि फैक्ट्री,  सर्फ, सोडा,  साबुन की जितनी भी फैक्ट्रियाँ ऒैर कम्पनियां हैं, हमारी होती । 
....... इसलिये जाति के सांचे से बाहर निकल कर पुश्तैनी व्यवसाय को व्यापार कि दृष्टि से समग्रता में देखने का प्रयास करें. ...

🌹किशन कमार लाल🌹
Mob no - 8918519132

दलितवाद - अम्बेडकरवाद एक बीमार समाज विज्ञान* part -1

Part - 1

 *दलितवाद - अम्बेडकरवाद एक बीमार समाज विज्ञान* 

कोईरी-कुर्मी , लोहार, सोनार, तेली, पासी, बढ़ई , धोबी,नाई, खटिक , चमार,भंगी, ग्वाला, गङेरिया-गौरया , कायस्थ एक पेशा था जाति नहीं ! 

हर समय-काल में  पेशेगत-वर्गीय विशेष पर टिपण्णी स्वाभविक थी । हरेक व्यवसाय का अपना एक चरित्र भी  होता है, और उससे जुड़ी टिपण्णी-व्यंग्य भी होती है ।

आज भी दारोगा, चपरासी , डाक्टर , नेता , नौकरशाही  पर अपमानजनक पेशेगत टिपण्णी व्यंग्य उपलब्ध है ।

आपके मूल जाति-ब्लड लाइन पर कोई टिपण्णी नहीं कर रहा था इसलिए बहुत ज्यादा अपमान की पीड़ा से व्यथित होने की आवश्यकता नहीं थी ।

आपने यदि अपमान की पीड़ा से समाजशास्त्र  पढ़ना शुरू कर दिया तो समाजिक विज्ञान फिर  बीमार विज्ञान बन जाता है ।

"दलितवाद-अम्बेडकरवाद"  उसी बीमार विज्ञान का नाम है ।

आपको सिर्फ दो बातें गौर करनी है ।

1) हर पेशे-वर्ग में नस्लीय विविधता कितनी है ? क्या अपमानजनक टिपण्णी की वजह नस्लीय समझ थी या वर्गीय ?

2) दूसरी यदि हम  पेशेगत समाजिक संरचना  को अपमानित कर रहे थे तो हम कहीं ना कहीं , भारत को  ही तो कमजोर कर रहे थे और किया भी हमने ।